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मथुरा में दलितों को सार्वजनिक स्थान से पानी लेने पर मनाही, हाथ से उठाना पड़ता है मैला

 25 Apr 2024

भारत में हाथ से मैला ढोलने की प्रथा दशकों से प्रतिबंधित है लेकिन हक़ीक़त ये है कि आज भी कई जगह यही तरीका इस्तेमाल किया जाता है। इस काम में जुटे लोगों को सार्वजनिक स्थानों पर पानी भी नहीं भरने दिया जाता। मालिटिक्स की टीम ने मथुरा के नौगाँव में ऐसा ही हाल देखा।

ज्ञान देवी कहती हैं, "हम रोज़ सुबह चार बजे उठते हैं, कलसा(पानी भरने वाला बर्तन) ले कर घर से तीन किलोमीटर दूर नल तक जाते हैं। यूं तो हम कोशिश करते हैं कि सबसे पहले पहुंच कर ज़ल्दी से पानी अपने घर ले कर लौट आयें। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं हो पाता, हम वहाँ पहुंचते ही हैं कि गाँव के ठाकुरों की भीड़ वहाँ मौजूद मिलती हैं, जो हमारे बर्तन उठा कर अलग फेंक देती है, हमें दुत्कारा जाता है, क्योंकि हम चमार है। वो हमें इसलिए पानी नहीं भरने देते है क्योंकि हम छोटी जाति से हैं। ज्ञानदेवी कहती हैं कि उनके यहाँ जो पानी आता है वो इतना ख़ारा होता है कि हम उसे खाने-पीने में इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं। गाँव के ठाकुर कहते हैं ये नल हमारा है यहाँ बस हम ही पानी भर सकते हैं तुम अपना इंतज़ाम ख़ुद कर लो।"

  

नौगाँव के महिलाओं को शौच के लिए आज भी खेतों में जाना पड़ता है। जुलाई 2022 में डब्ल्यूएचओ और यूनिसेफ ने एक रिपोर्ट पेश की है। इस रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में भी भारत की 17 प्रतिशत ग्रामीण आबादी खुले में शौच करती है। दुनियाभर में एक अरब लोग शौच के लिए खेतों में जाते हैं। जिनमें से क़रीब 60 फ़ीसद लोग भारत में रहते हैं। नौगाँव में रह रही एक किशोरी बताती हैं “हमारे यहाँ शौचालय नहीं हैं हमें बाहर जाने में शर्म आती है। सुबह-सुबह मैं माँ के साथ ज़ल्दी निकल जाती हूं क्योंकि रोशनी होने पर लड़के मंडराने लगते हैं। '' शर्म और संकोच के चलते, गाँव की महिलाएं तड़के सुबह और देर शाम ही खेत में शौच के लिए जाती हैं। मानो यह समय उनके लिए आरक्षित हो। महिलाओं के लिए दिन के 14-15 घंटे बिना शौचालय की सुविधाओं के बहुत ज़्यादा तकलीफ़ देह होता है। बहुत पूछने पर गाँव की महिलाएं बताती हैं कि शौचालय के लिए अक्सर घर में एक तसला इस्तेमाल किया जाता है, ताकि लड़कियों को दिन में खेत न जाना पड़े। बार-बार इस्तेमाल से तसला गंदा हो जाता है तो उसे जल्द ही फेंक दिया जाता है।

भारत में शौच के लिए खेतों की ओर जा रही औरतों के साथ रेप और क़त्ल की कई वारदातें हुई हैं। महज़ शौचालय जाना एक लड़की के लिए कितना घातक हो सकता है, यह तब सामने आया जब बदायूं में एक रात को खेत गईं दो लड़कियों का कथित सामूहिक बलात्कार और हत्या कर उन्हें पेड़ से लटका दिया गया था।


अभी भी भारत में ढ़ोया जा रहा है हाथ से मैला

भारत में 30 साल से हाथ से मैला ढ़ोने की प्रथा पर प्रतिबंधित है। लेकिन ब्राह्मणवादी विचारधारा वाले इस पितृसत्तात्मक समाज में आज भी दलित और इनमे भी जाटव और वाल्मीकि समाज के लोगों को अपनी जान को जोख़िम में डाल कर, ज़मीन के नीचे बह रहे पूरे शहर के मल-मूत्र को अपने हाथ से साफ़ कर रहे हैं। ऐसे सफ़ाई कर्मचारियों को मैनुअल स्केवेंजर्स कहा जता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 में जाति-धर्म के आधार पर भेदभाव करने की मनाही है, ऐसे में क्या ब्राह्मण, ठाकुर और वैश्य समाज को यह मल-मूत्र अपने हाथों से साफ़ करने का काम नहीं दिया जाना चाहिए? इससे समानता भी बढ़ेगी और जो आरक्षण का विरोध करते हैं उनकी ये मंशा पूरी होने को गति भी मिलेगी।लेकिन सवाल है कि यह जातिवादी, अमानवीय और आधिकारिक तौर पर अवैध प्रथा आज भी क्यों प्रचलित है?

केंद्रीय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा 2013 और 2018 में किये गये दो सर्वेक्षणों के अनुसार, सरकार का अनुमान है कि 58,000 मैनुअल स्कैवेंजर हैं। लेकिन ये आँकड़ा सही नहीं हैं मैनुअल स्कैवेंजर्स की संख्या इसके दस गुने से भी बहुत ज़्यादा होने का अनुमान है। सफ़ाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक बेजवाड़ा विल्सन ने बताया, “जब हम अधिकारियों को बताते हैं कि हमारे पास 200 मैला ढ़ोने वालों की सूची है, तो वे इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं, वे कुल संख्या घटाकर 20 कर देते हैं। वे इन 20 मैनुअल स्कैवेंजर्स के पुनर्वास की बात कहकर पूरी ज़मीनी वास्तविकता को झूठला देते हैं। अधिकारी कहते हैं कि मैला ढ़ोने की प्रथा को समाप्त कर दिया गया है।' “जब मैला ढ़ोने वाले काम करना बंद कर देते हैं, तो उनके पास अपना पेट भरने के लिए पैसे नहीं बचते हैं। 40,000 रुपये की एकमुश्त सरकारी राहत अक्सर छह महीने से लेकर आठ साल तक के लम्बे समय के बाद उन्हें मिलती है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पिछले 2013-2018 के बीच सीवर और सेप्टिक टैंकों की सफ़ाई करते समय कम से कम 347 लोगों की जान जा चुकी है।